आज भारत में महिलाये हरतालिका तीज का व्रत रख रही है। हर साल यह त्योहार भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत मुख्य रूप से सुहागिन महिलाओं के लिए है। इस दिन महिलाएं अखंड सौभाग्य और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए व्रत रखती हैं। इस व्रत में महिलाएं माता गौरी से न केवल सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद मांगती हैं बल्कि मान्यता है कि व्रत कुवारी लड़किया भी शिव जी जैसा पति पाने के लिए रखती है । गौरतलब है कि विवाहित महिलाओं के लिए यह व्रत बेहद ही महत्वपूर्ण माना जाता है।
यह व्रत बहुत ज़्यादा कठिनहोता है, क्योंकि इस दिन महिलाएं निर्जला (यानी बिना पानी) के उपवास करती हैं। आइए अब आपको बताते हैं हरतालिका तीज का महत्व, पूजा विधि, शुभ मुहूर्त और व्रत कथा ।
हरतालिका तीज शुभ मुहूर्त –
तृतीया तिथि आरंभ – 21 अगस्त, शुक्रवार सुबह 02 बजकर 13 मिनट से
तृतीया तिथि समाप्त – 21 अगस्त, शुक्रवार रात 11 बजकर 02 मिनट तक
प्रात: काल हरतालिका पूजा मुहूर्त – सुबह 05 बजकर 54 मिनट से साढ़े 8 बजे तक
प्रदोष काल हरतालिका पूजा मुहूर्त – शाम 06 बजकर 54 मिनट से 09 बजकर 06 मिनट तक
क्या है इस पूजा का महत्व –
दरसल इस दिन भगवान शंकर और माता पार्वती की पूजा की जाती है। इस दिन ही माता पार्वती ने भोलेनाथ को पति रूप में पाने के लिए कठिन व्रत और पूजन किया था। तब से ही सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र का वरदान पाने के लिए यह व्रत करती हैं। इस दिन माता पार्वती को सुहाग का सभी श्रृंगार अर्पित किया जाता है। मान्यता है कि इससे प्रसन्न हो देवी पार्वती भी व्रती स्त्री के सुहाग की लंबी उम्र होने का आशीर्वाद देती हैं।
व्रत कथा
पौराणिक मान्यताओं में बताया गया है कि सबसे पहले हरतालिका तीज व्रत माता पार्वती ने भगवान शिव जैसा वर पाने के लिए रखा था। कथा इस प्रकार है कि पिता के यज्ञ में अपने पति शिव का अपमान देवी सती सह न सकीं। उन्होंने खुद को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में उन्होंने राजा हिमाचल के यहां जन्म लिया और पूर्व जन्म की स्मृति शेष रहने के कारण इस जन्म में भी उन्होंने भगवान शंकर को ही पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की। देवी पार्वती ने तो मन ही मन भगवान शिव को अपना पति मान लिया था और वह सदैव भगवान शिव की तपस्या में लीन रहतीं। पुत्री की यह हालत देखकर राजा हिमाचल को चिंता होने लगी।
इस संबंध में उन्होंने नारदजी से चर्चा की तो उनके कहने पर उन्होंने अपनी पुत्री उमा का विवाह भगवान विष्णु से कराने का निश्चय किया। पार्वतीजी विष्णुजी से विवाह नहीं करना चाहती थीं। पार्वतीजी के मन की बात जानकर उनकी सखियां उन्हें लेकर घने जंगल में चली गईं। इस तरह सखियों द्वारा उनका हरण कर लेने की वजह से इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत पड़ा। पार्वतीजी तब तक शिवजी की तपस्या करती रहीं जब तक उन्हें भगवान शिव पति के रूप में प्राप्त नहीं हुए।