यूँ ही नहीं मिली आजादी
है दाम चुकाए वीरों ने,
कुछ हंस कर चढ़े हैं फांसी पर
कुछ ने जख्म सहे शमशीरों के,
जो शुरू हुई सन सत्तावन में
सन सैंतालीस तक शुरू रही
मारे गए अंग्रेज कई
वीरों के रक्त की नदी बही,
मजबूत किया संकल्प था उनका
भारत माता के नीरों ने
यूँ ही नहीं मिली आजादी
है दाम चुकाए वीरों ने।
यह बात तो हम सब जानते है कि आज़ादी का स्वाद भारत ने यूँ ही नहीं चखा है। इसके लिए अनगिनत देशभक्तों ने न केवल अपना खून बहाया था, बल्कि कईयों ने देश के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया था। लेकिन क्या आप जानते है कि इतने त्याग, बलिदान, कष्ट, अत्याचार आंदोलन और कुर्बानी के बाद जब भारत को आज़ादी मिली थी तो देश में क्या स्थिति थी ?
आज़ादी के दिन खुश नहीं थे बापू।
आजादी किसे प्यारी नहीं लगती लेकिन उस दिन महात्मा गांधी इस खास मौके पर खुश नहीं थे। 14 अगस्त 1947 की रात को जब संविधान सभा की बैठक हो रही थी तो राष्ट्रपिता का नाम लेकर शुरु हुई उस सभा के बाहर महात्मा गांधी की जय के नारे लगाये जा रहे थे, लेकिन इन सब के बीच महात्मा गांधी वहां मौजूद नहीं थे। दरअसल, एक तरफ जब पूरा देश आजादी के जश्न में था, तब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इन सबसे दूर अनशन पर थे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच छिड़े सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए वह पश्चिम बंगाल के नोआखली में 24 घंटे के अनशन पर बैठ गए थे। उस वक्त महात्मा गांधी ने किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया और न ही तिरंगा फहराया था।
हुआ था सबसे बड़ा सांप्रदायिक दंगा, श्मशान बन गया था कलकत्ता।
पूर्वी बंगाल का नोआखाली जिला जिन्ना के ‘डायरेक्ट एक्शन प्लान’ की भेंट चढ़ा था। दरअसल 15 अगस्त, 1946 को उन्होंने हिंदुओं के खिलाफ ‘डायरेक्ट एक्शन’ (सीधी कार्रवाई) का फरमान जारी कर दिया था। कलकत्ता में 72 घंटों के भीतर 6 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। 20 हजार से अधिक घायल हो गए थे। इस दौरान 1 लाख से अधिक बेघर हो गए थे। बता दे कि इसे कलकत्ता किलिंग भी कहा जाता है।
इतिहास का टर्निंग पॉइंट था 13 अगस्त 1947 का दिन, ऐसा था देश का माहौल।
200 वर्षों की गुलामी के बाद 13 अगस्त 1947 को को देश का बंटवारा हो चुका था। पूरे देश में अफरातफरी का माहौल था। एक तरफ आजादी मिलने की खुशी थी तो दूसरी तरफ बंटवारे का दर्द। हिंदू, मुस्लिम और सिख समुदाय के लोग अपने सुरक्षित भविष्य की तलाश में बॉर्डर क्रॉस कर रहे थे, लेकिन अपनी धरती, अपनी जमीन छोड़ने का दुख उनका कलेजा छलनी कर रहा था।
भारत ने झेला सबसे बड़े विस्थापन का दर्द।
13 अगस्त को ही भारत मे रह रहीं मुस्लिम महिलाओं ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन पकड़ी और पाकिस्तान से हिंदुओं को भारत भेजा जा रहा था। बंटवारे के बीच दंगे भड़क उठे थे और लोग एकदूसरे को मारने काटने में लगे थे। इतना ही नहीं, पाकिस्तान से जो ट्रेनें भारत आ रही थीं, उनकी बोगियों से लाशें निकल रही थीं और चारों ओर खून खराबा पसरा था।
दुनिया ने देखा सबसे बड़ा विस्थापन।
दो मुल्क के बंटवारे के महज 50 से 60 दिन के भीतर लाखों लोग का विस्थापन हुआ था। इतना बड़ा विस्थापन दुनिया में पहले कहीं नहीं हुआ था। एक आंकड़े के मुताबिक करीब 1.45 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे। 1951 में जब जनगणना हुई तो पता चला कि बंटवारे के बाद करीब 72 लाख 26 हजार मुसलमान हिंदुस्तान छोड़कर पाकिस्तान चले गए और करीब 72 लाख 49 हजार हिंदू और सिख पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान चले आए।
त्रिपुरा का भारत में विलय।
उस वक्त तक त्रिपुरा भारत का हिस्सा नहीं था। त्रिपुरा में लंबे वक्त से राजशाही थी। 13 अगस्त 1947 को ही त्रिपुरा की महारानी कंचनप्रवा देवी ने त्रिपुरा के भारत में विलय का फैसला लिया था। इसी दिन महारानी ने विलय के कागजात पर अपने दस्तखत किए थे। इसके साथ ही त्रिपुरा का भारत में विलय हुआ था।
हैदराबाद और भोपाल के निज़ाम अपनी बात पर अड़े।
इधर भारत में रियासतों का विलय हो रहा था लेकिन भोपाल के नवाब भी अपनी बात पर अड़े थे। 13 अगस्त 1947 को भोपाल के नवाब हमिदुल्ला खान ने भोपाल के विलय से इनकार करते हुए भोपाल के आजाद रखने की मांग रखी थी। उधर हैदराबाद के निजाम भी इसी तरह की कोशिश में लगे थे। निजाम ने ट्रांसफर ऑफ पावर के मसले पर घोषणा की कि हैदराबाद एक स्वतंत्र राज्य के तौर पर रहेगा।
इधर पाकिस्तान कि आज़ादी हुई मुक्कर्रर।
इस बीच मुस्लिम समुदाय के लिए ये खुशी का दिन था। 13 अगस्त के एक दिन बाद यानी 14 अगस्त पाकिस्तान की आजादी का दिन मुकर्रर हुआ था।
अब जानें की आखिर 15 अगस्त 1947 की आधी रात को ही क्यों मिली थी आजादी।
लॉर्ड माउंटबेटन की योजना के तहत 15 अगस्त 1947 को आजादी का ऐलान करने का दिन तय किया गया क्योंकि इसी दिन 1945 में जापान ने आत्मसमर्पण किया था। लॉर्ड माउंटबेटन ने खुद इसके पीछे का तथ्य भी दिया था कि आखिर उन्होंने 15 अगस्त का दिन ही क्यों चुना था।
15 अगस्त के दिन आज़ादी मिलने पर क्यों भारत ने जताया था विरोध ?
आजादी के जश्न के लिए 15 अगस्त की तारीख तय हो गई मगर ज्योतिषियों ने इसका जमकर विरोध किया क्योंकि ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह दिन अशुभ और अमंगलकारी था। ऐसे में दूसरी तारीखों का चुनाव किया जाने लगा मगर लॉर्ड माउंटबेटन 15 अगस्त की तारीख को नहीं बदलना चाहते थे।
और फिर निकला गया ये रास्ता।
ऐसे में ज्योतिषियों बीच का रास्ता निकलते हुए 14-15 तारीख की मध्य रात्रि का समय तय किया। क्योंकि अंग्रेजी समयनुसार 12 बजे के बाद अगला दिन लग जाता है। जबकि भारतीय मान्यता के मुताबिक सूर्योदय के बाहर अगला दिन माना जाता है। ऐसे में आजादी के जश्न के लिए अभिजीत मुहूर्त को चुना गया जो 11 बजकर 51 मिनट से शुरू होकर 12 बजकर 39 मिनट तक रहने वाला था और इसी बीच पंडित जवाहरलाल नेहरू को अपना भाषण भी समाप्त करना था।
और बापू नहीं सुन पाए भाषण।
जब राजधानी दिल्ली में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था उस वक्त महात्मा गांधी दिल्ली से हजारों किमी दूर पश्चिम बंगाल के नोआखली में थे और राज्य में शांति कायम करने का प्रयास कर रहे थे। जानकार बताते हैं कि पंडित नेहरू के ऐतिहासिक भाषण को पूरे देश ने सुना था मगर गांधी जी नहीं सुन पाए थे।
कैसे मना सकता हूँ जश्न – बापू ?
पंडित नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने महात्मा गांधी को पत्र लिखकर बताया था कि 15 अगस्त को देश का पहला स्वाधीनता दिवस मनाया जाएगा। आप राष्ट्रपिता हैं। इसमें शामिल होकर अपना आशीर्वाद दें। जिसके बाद महात्मा गांधी ने भी जवाब में पत्र लिखते हुए कहा था कि जब बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम एक दूसरे की जान ले रहे हैं, ऐसे में मैं जश्न मनाने के लिए कैसे आ सकता हूं। मैं दंगा रोकने के लिए अपनी जान दे दूंगा।
15 अगस्त को नहीं फेहरा था झंडा।
हर साल प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले से झंडा फहराते हैं लेकिन 15 अगस्त 1947 के दिन झंडा नहीं फहराया गया था। लोकसभा सचिवालय के एक शोध पत्र के मुताबिक, पंडित नेहरू ने 16 अगस्त 1947 को लाल किले से झंडा फहराया था और आज़ादी के अवसर पर भारत का पहला राष्ट्रीय ध्वज सेंट जॉर्ज किले पर फेहराया गया था।
इतना ही नहीं 15 अगस्त को भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा का निर्धारण भी नहीं हुआ था। इसका फैसला 17 अगस्त को रेडक्लिफ लाइन की घोषणा से हुआ था। देश भले ही 1947 को आजाद हो गया हो लेकिन हिन्दुस्तान के पास अपना खुद का राष्ट्रगान नहीं था। हालांकि, रवींद्रनाथ टैगोर ने 1911 में ही जन गण मन को लिख दिया था मगर 1950 में वह राष्ट्रगान बन पाया था।
अब भारत की आज़ादी को 75 वर्ष पूरे हो चुके है लेकिन इस आज़ादी के संग्राम से ऐसे अनगिनत किस्से, कष्ट और दुःख है जिसका अंदाज़ा आज भी भारत नहीं लगा सकता। देश आज आज़ादी की 75 वी वर्षगांठ पर उन सभी वीर सैनिक और सैनानियों के त्याग, तपस्या और बलिदान का सम्मान करता है और साथ ही उनके त्याग को नमन करता है जिन्होंने आज़ादी के कई वर्षों बाद तक अनगिनत कष्ट सहे है।