जलियांवाला बाग़ नरसंहार की 100 बरसी शनिवार को है. भारत के इतिहास में यह वो काला पन्ना है, जिससे ब्रिटिश हुकूमत की एक घिनोनी तस्वीर सामने आती है. हज़ारों की मौत का कारण बनने वाला यह हत्याकांड हाल ही में सुर्ख़ियों में भी रहा, जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने बुधवार को जलियांवाला बाग की 100 वीं वर्षगांठ से पहले जलियांवाला बाग नरसंहार को लेकर खेद व्यक्त किया.
उन्होंने ब्रिटिश संसद में कहा, “जो भी हुआ हमें उसका गहरा अफसोस है”.
पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजी सरकार के लिए लड़ने वाले हज़ारों हिन्दुस्तानी सिपाहियों की कुर्बानी से भारतवर्ष में ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी मांगने वाली आवाज़ें और तेज़ हो गयी थी.
पश्चिम बंगाल और पंजाब की मिट्टी के खून में उबाल था. आक्रोश की हवा अब अंग्रेजी दफ्तरों में दस्तक दे चुकी थी. इस आग को हवा दी रौलट एक्ट ने. इस एक्ट ने अंग्रेजी सरकार को अनुमति दे दी थी कि वह बिना किसी मुकदमे के संदिग्धों को नजरबंद कर सकती है.
ऐसे में ब्रिटिश प्रशासन द्वारा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दो लोकप्रिय नेताओं- सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी लोगों में भरे आक्रोश का इम्तेहान ले चुकी थी.
इसके खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए 13 अप्रैल, 1919 के दिन हज़ारों की संख्या में जलियांवाला बाग़ में लोगों का जामवड़ा लग गया. जनरल डायर बिना किसी चेतावनी के वहाँ जमा लोगों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी.
वापस मार्च करने से पहले उन्होंने कुल 1,650 राउंड फायर किए. डायर मशीन गन से फायर करने की भी पूरी तैयारी में था लेकिन वो जालियांवाला बाग के तंग प्रवेश द्वार से अंदर नहीं जा सकी.
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1919 में हंटर कमीशन के गठन होने के बाद जब जनरल डायर को पेश किया गया तो उसने कहा कि उसे अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है. उसे एक ख़ास उपहार के साथ वापस लंदन भेज दिया गया.