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कारगिल के 20 साल: भारत की पाकिस्तान पर फतेह की कहानी

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भारत की इस आजादी में,कितनों ने मृत्यु वरण किया।

कितनों ने अपना घर छोड़ा,कितनों ने जीवनमरण किया।

अनगिनत अनाम शहीद,हुए आजादी के मतवाले थे।

भारतमाता की पुकार,पर वो कब रुकने वाले थे।

भारत को अपनी आजादी एक सुनहरी सुबह को, सूरज समान तख़्त पर परोसी नहीं गयी. ना ही एक कबूतर के गले में लटका हुआ इसका संदेश आया. बल्कि भारत माँ के हजारों वीरों के बहे खून से विश्व के नक़्शे पर लिखा गया था ‘आज़ाद भारत’.

लेकिन, आज़ाद हिन्दुस्तान ने भी कई लड़ाईयां लड़ी. भले ही फिर वह 1947 में भारत पाकिस्तान के बीच हुआ भीषण संघर्ष हो या फिर 1962, 1965 या 1971 के युद्ध हो. इन लड़ाइयों के दौरान जहां हिन्दुस्तान ने रण क्षेत्र में फतेह हासिल की, वहीं भारत माँ ने अपने सैंकड़ों लाडलों को भी खो दिया.

1999 का कारगिल युद्ध. सामने 1947, 1965 और 1971 की हार से बोखलाया पाकिस्तान और इस पार माथे पर हिन्दुस्तान की मिटटी का तिलक लगाने वाले भारत के वीर.

1999 की जंग भारत की पहली टेलीवाईसड़ लड़ाई थी, जिसमें युद्ध की हैरतंगेज़ तस्वीरें करोड़ों हिन्दुस्तानियों के घर तक सीधी पहुंची थीं.

कैप्टेन विक्रम बत्रा,विजयंत थापर, मनोज पाण्डेय और संजय कुमार जैसे तमाम ऐसे शूरवीर थे जिन्होंने ना सिर्फ इस जंग को जीतने में अहम भूमिका निभाई बल्कि करोड़ो हिन्दुस्तानियों के दिल को जज्बे और साहस से भर दिया था.

1999 में कश्मीर के कारगिल जिले में भारत-पाकिस्तान के बीच सशस्त्र संघर्ष हुआ, जिसे हम कारगिल युद्ध के नाम से जानते हैं. युद्ध का कारण – पाकिस्तान की सेना ने कश्मीरी उग्रवादियों के साथ मिलकर भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी.

दरअसल सन 1947 के बाद से यह व्यवस्था रही कि ठंड के मौके पर भारत और पाकिस्तान के सैनिक ऊंची बर्फीली पहाड़ियों पर सभी गश्त रोक कर और पोस्ट खाली कर नीचे आते थे और गर्मियों में वापस जाते थे.

लेकिन, फितरत से मजबूर पाकिस्तान ने 1999 में एक षड़यंत्र रचा. पाकिस्तान ने अपने सैंकड़ों सैनिकों को घुसपैठियें बनाकर जम्मू-कश्मीर की सीमा के अंदर भेजा. मकसद था कि जब भारत के सैनिक सर्दियाँ ख़त्म होने के बाद पहाड़ी पर वापस जाए तब उन्हें बीच रस्ते में ही रोक दिया जाये. मकसद था NH-1 डेल्टा पर कब्ज़ा करना जिससे वह लेह और लद्दाख को भारत से काट सके. NH-1 डेल्टा श्रीनगर को लेह से जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग है.

3 मई को एक स्थानीय चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल के बटालिक सेक्टर में कुछ घुसपैठियों के कब्ज़ा ज़माने की खबर दी. शुरू में भारतीय सेना ने इन घुसपैठियों को जिहादी समझा और उन्हें खदेड़ने के लिए कम संख्या में अपने सैनिक भेजे, लेकिन प्रतिद्वंद्वियों की ओर से हुए जवाबी हमले और एक के बाद एक कई इलाकों में घुसपैठियों के मौजूद होने की खबर के बाद भारतीय सेना को समझने में देर नहीं लगी कि असल में यह एक योजनाबद्ध ढंग से और बड़े स्तर पर की गई घुसपैठ थी, जिसमें केवल जिहादी नहीं, पाकिस्तानी सेना भी शामिल थी.

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जब भारतीय सेना को आभास हुआ कि घुसपैठ छोटी नहीं है बल्कि इसका फलक बहुत व्यापक है,जवाबी कार्रवाई की तैयारी शुरू की गयी.

भारतीय सेना के सामने अब दो चुनौतियाँ थी. पहली, इस इलाके का मौसम जो बेहद ठंडा होने के साथ-साथ दुर्गम भी था. दूसरी, दुश्मन ऊँचाई पर छिपकर बैठा था और खतरनाक हथियारों से लैस था. उसके लिए ऊँचाई से हमला करना आसान था और भारतीय सेना के लिए हमले से बचना उतना ही मुश्किल.

हमले के लिए सबसे पहले तोलोलिंग को चुना गया. तोलोलिंग की पहाड़ी पर फतेह पाना भारत के लिए बेहद अहम था, क्योंकि यह वही पहाड़ी थी जिसके ऊपर दुश्मन छिपकर बैठा था और NH-1 पर कब्ज़ा करने की तैयारी में था. लेकिन इस पहाड़ी पर बैठे दुशमन को मारना टेढ़ी खीर था. इसके लिए फ़ौज को पहले तैयारियों में लगाया गया. सर्च पार्टियाँ भेजी गयी. पहाड़ी और पहाड़ी के इर्द-गिर्द फीचर की मैपिंग की गयी.

28 मई को मेजर आरएस अधिकारी,कैप्टन एस निम्बालकर और ले. बलवान सिंह के नेतृत्व में सेना ने तोलोलिंग पर हमला बोला. शुरुआत में दुश्मन की तरफ से काफी गोलीबारी हुई. इसके बावजूद भारतीय सेना ने दुश्मनों पर दबाव बनाए रखा.

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सेना के साथ, राष्ट्रिय राइफल्स, गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ियों को भी इस हमले में शामिल किया गया. आखिरकार 13 जून 1999 की सुबह 3 बजे, गुप अंधेरे में 2 राष्ट्रिय राइफल्स के मेजर विवेक गुप्ता के नेतृत्व में उनकी यूनिट ने असाधारण वीरता दिखाते हुए तोलोलिंग पर कब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस संघर्ष में मेजर विवेक गुप्ता शहीद हो गए.

तोलोलिंग फतेह भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन विजय’ की पहली जीत थी. हालांकि इसके आसपास की दूसरी पहाड़ियों पर दुश्मन अब भी डेरा जमाये बैठे थे.

तोलोलिंग के बाद पॉइंट 5140 पर हमले की योजना बनायीं गयी. 15,000 फीट की ऊँचाई पर होने के कारण यहां हमले के लिए भारतीय वायुसेना की मद्द ली गयी. इसके लिए मी-17 लड़ाकू हेलीकाप्टर को चुना गया, जो उस समय वायुसेना के बेड़े में शामिल अकेला ऐसा लड़ाकू हेलीकाप्टर था जो 18,000 फीट की ऊँचाई तक उड़ सकता था.

पॉइंट 5140 पर भारतीय सेना के ऑपरेशन की ज़िम्मेदारी सियाचिन में कमांड कर चुके विंग कमांडर एके सिन्हा को सौंपी गयी. सेना के सामने अब बड़ी चुनौती थी कि हवाई हमला करने के दौरान दुश्मन के पास मौजूद एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल और स्ट्रिंगर मिसाइल से कैसे बचा जाए.

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सभी चुनौतियों को लांगते हुए और अदम्य साहस का परिचय देते हुए भारतीय वायुसेना ने 26 मई की सुबह ‘ऑपरेशन सफ़ेद सागर’ की शुरुआत की. हालांकि 26 मई को दुश्मनों को नेस्तानाबूद नहीं किया जा सका. इसके बाद 28 मई को एक बड़े हमले की तैयारी की गयी. चार हेलिकॉप्टरों ने मिलकर संयुक्त रूप से पॉइंट 5140 पर चारों ओर से हमला किया.

जब भारतीय वायुसेना दुश्मनों पर हवाई हमले कर रही थी, तब नीचे मौजूद थलसेना चौतरफा हमले की योजना बना रही थी. 18 गढ़वाल राइफल्स को पूर्व से, 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स को पश्चिम से हमला करने के आदेश दे दिए गए. 19 जून की रात को सभी आर्टिलरी डिवीज़न और त्रासद सेक्टर में मौजूद इन्फेंट्री टुकड़ियों को फायर करने का हुक्म दे दिया गया.

दिलेरी का परिचय देते हुए सेना ने 20 जून की सुबह पॉइंट 5140 पर कब्ज़ा कर लिया. इस दौरान 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स का नेतृत्व कैप्टेन विक्रम बत्रा कर रहे थे, जिन्होंने इस जीत के बाद ‘दिल मांगे मोर’ का नारा दिया था.

हमेशा जोश से लवरेज कैप्टेन विक्रम बत्रा को उनकी बहादुरी के लिए ओन फील्ड प्रमोशन भी दिया गया था. पॉइंट 5140 पर फतेह के बाद विक्रम बत्रा की यूनिट को आराम और रिग्रूपिंग के लिए भेजा गया था.

इसी दौरान उन्हें खबर मिली कि,पॉइंट 4875 को वापस लाने के लिए उनकी कंपनी जूझ रही है और दुश्मन की ताबड़तोड़ फायरिंग में फंसी है, तो उन्होंने मैदान में वापस जाने का फैसला किया. पॉइंट 4875 की आमने-सामने की लड़ाई में विक्रम शहीद हो गए, लेकिन वीरगति को प्राप्त होने से पहले उन्होंने 5 पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था.

इस फतेह के बाद अगला लक्ष्य था पॉइंट 4700 और 3 पिम्पल पर मौजूद दुश्मन को धुल चटाना. 28 जून को हमले की तैयारी शुरू की गयी. आर्टिलरी और मोर्टार से दुश्मन पर भारी मात्रा में बम गिराए गए. भारतीय सेना ने इस लक्ष्य को भी हासिल कर लिया और दुश्मन पर जीत दर्ज की. इस हमले के दौरान मेजर पी आचार्य, कैप्टेन विजयंत थापर और कैप्टेन कैंगरूज़ वीरगति को प्राप्त हो गए और मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से नवाज़ा गया.

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इसके बाद की लड़ाई को टाइगर हिल के नाम से जाना जाता है. ये वो लड़ाई थी जिसने इस युद्ध का रुख ही बदल दिया. टाइगर हिल की लड़ाई के दौरान ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव ने असामान्य साहस का परिचय देते हुए पाकिस्तानी सेना के बंकरों को ध्वस्त कर दिया. 11 जुलाई की सुबह तक भारतीय सेना ने टाइगर हिल काम्प्लेक्स पर मौजूद सभी दुश्मनों को मार गिराया था.

5 जुलाई को भारतीय सेना ने द्रास सेक्टर पर पुनः कब्ज़ा किया. इसके तुरंत बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने बिल किलिंटन को बताया कि वह कारगिल से अपनी सेना को हटा रहें है. जिसके बाद पाकिस्तानी रेंजर्स ने बटालिक से भागना शुरू कर दिया. भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को कारगिल छोड़ने के लिए 16 जुलाई तक का समय दिया.

आखिरकार 14 जुलाई को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने ऑपरेशन विजय की जीत की घोषणा कर दी. इसके साथ ही 26 जुलाई को विजय दिवस के रूप में मनाये जाने की भी घोषणा उन्होंने की.

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तभी से हर साल इस दिन को भारतीय सेना के वीरों की शौर्य गाथा के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है.

आखिर सही ही तो कहते हैं वो जवान –जब आप घर जाये, तो उन्हें बताये कि हमने अपना आज उनके कल के लिए कुर्बान कर दिया.

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